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बिना सेनापति की कांग्रेस

मल्लिकार्जुन खडगे को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने के बावजूद कांग्रेस आम भारतीय को ये विश्वास नहीं दिला पाई है कि खडगे अकेले निर्णय लेने में सक्षम है। पद का भले ही हस्तांतरण है गया है लेकिन सत्ता पर नियंत्रण गांधी परिवार के तीन सदस्यों सोनिया गांधी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का बना हुआ है। नीतिगत निर्णय पर अंतिम सहमति का केंद्र अभी भी सोनिया गांधी के पास ही है इस आधार पर ये मान लेने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस की सोनिया गांधी ही सेनापति है भले ही राजा मल्लिकार्जुन खडगे है। आजादी के बाद से लेकर 1977और 1980से लेकर 1989 तक कांग्रेस लोकसभा में इकलौती पार्टी थी जिसे किसी अन्य पार्टी के समर्थन या सहारे की जरूरत नहीं पड़ती थी।

1989से लेकर 2013तक लोकसभा में कोई भी पार्टी अकेले बहुमत ले कर नहीं आ सकी परिणामस्वरूप गठबंधन सरकारों का दौर चला जो आज तक जारी है। भारतीय जनता पार्टी अकेले ही लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल है लेकिन देश भर में उनका गठबंधन बना हुआ है। हर पार्टी का अध्यक्ष कोई भी हो लेकिन एक चेहरा भी होता है जिसे सामने रख पार्टियां चुनाव में उतरती है। आजादी के बाद कांग्रेस के पास पं जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी चेहरे थे विपक्ष के पास चुनाव लडने के लिए अटल बिहारी वाजपेई चेहरे रहे ।भाजपा नरेंद्र मोदी को सामने रख कर तीसरी बार लोकसभा चुनाव में उतर चुकी है लेकिन कांग्रेस के पास चेहरे का अभाव है और जो चेहरा है उसके द्वारा लोक सभा चुनाव से पलायन कर पिछले दरवाजे से राज्य सभा का चयन किया जा चुका है।

कांग्रेस की सारी शक्ति सोनिया गांधी में केंद्रित है। उत्तर प्रदेश में पिछले चुनाव में भाजपा के लहर के बावजूद रायबरेली सीट से सोनिया गांधी विजयी हुई थी। इस बार स्वास्थ्यगत कारण बता कर भले ही सोनिया गांधी रायबरेली से चुनाव से हट गई है लेकिन इसे भाजपा संभावित हार से बचने का कारण बता कर नैतिक रूप से अपने जीत के मार्ग को आसान बता रहे है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस कुछ राज्यो को छोड़कर इंडी गठबंधन के द्वारा दीगर पार्टियों के साथ सीट का बटवारा लेकर चुनाव लड़ रही है। ये एक राष्ट्रीय पार्टी के लिए सही बात नही है। नैतिक रूप से सोनिया गांधी को राज्यसभा में जाने के बजाय रायबरेली से किस्मत आजमाना था। हार जीत चुनाव का हिस्सा है। इंदिरा गांधी और अटल बिहारी बाजपेई जैसे प्रधान मंत्री चुनाव हारे है लेकिन उन्होंने मैदान नही छोड़ा। सोनिया गांधी उम्र और बीमारी का तकाजा नही दे सकती क्योंकि समाजवादी पार्टी के हाल ही में दिवंगत 93वर्षीय सफीकुर रहमान बर्क मुरादाबाद से 2019में 88साल की उम्र में लोकसभा चुनाव जीते थे।

दरअसल उत्तर प्रदेश में रामलला के मंदिर निर्माण और योगी आदित्यनाथ के कानून व्यवस्था को लेकर बने माहोल के चलते ये माना जा रहा है कि भाजपा दीगर पार्टियों की तुलना में बढ़त बनाए हुए है। पिछले लोकसभा चुनाव में अमेठी से राहुल गांधी की हार ने कांग्रेस और सोनिया गांधी के माथे पर चिंता की लकीरें खींची हुई है इसी कारण सोनिया गांधी इस बार हिम्मत नही कर पाई। कांग्रेस की सेना में सोनिया गांधी सेनापति की महत्वपूर्ण भूमिका में रही है।

आज की स्थिति में पलायन से कांग्रेस बिना सेनापति की सेना हो गई है जो हारे हुए युद्ध में सामने वाले से लड़ने के लिए सिद्धांत से मेल न खाने वालो के साथ मैदान में है। स्वतंत्र सेना नेतृत्व के अभाव में जैसा लड़ पा रही है वैसा लड़ने की कोशिश कर रही है। अनेक कांग्रेसी योद्धा ,युद्ध में पराजय को देख मैदान में उतरे ही नहीं है तो कुछ मीर जाफर और जयचंद बन कर सामने वाले के खेमे में जा रहे है। इसे नियंत्रण का अभाव भी माना जा सकता है। कुल मिलाकर राजा के होते सेनापति के कमजोर होने से कांग्रेस में असमंजस की स्थिति है जिसके चलते मनोबल टूटा टूटा सा दिख रहा है!

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