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कहा गे गुलाटी

एक कहावत हे बंदर ह कतेक डोकरा हो जाए गुलाटी मारे न झन भुलाए। राजनीति के डोकरा मन सत्ता में रहत तक पचपन के होय के बावजूद बचपन के स्टंट दिखा थे। जहां सत्ता ले बाहर होथे नशा ह उतर जाथे, गुलाटी मारना भूल जाथे ।ये पब्लिक है सब जानथे,अंदर का हे बाहर का हे सब पहिचानथे। जादा दिन नहीं बीते है, बेरा बेरा के बात है,सत्ता रहीथे तो कुलानबाटी खवईया मन के खारुन नदी में बाढ़ आ जाथे।भले उमर ह पचपन के रहे बचपना याद रहीथे सत्ता के मद के बात रहीथे,सत्ता गे तो खारुन नदी कौन तरफ हे याद नहीं रहे।

हारे बर हरिद्वार रहीथे। जतेक झन मुंह अंधेरा में उठ के नदी तरफ भागत रहीन ओमा दु झन ह हार गे वो भी बुरी कदर।पश्चिम में खारुन पड़थे, विकास,के नामों निशान नहीं है। वईसने भी कुलांटी मारईया ल विकास पसंद नहीं रहीस, घोटाला पसंद मनखे मन ल खुद के विकास बने लगथे। टामन समीर, अनिल, आलोक, मनोज, अरुण पति, सूर्यकांत, रोशन, अनवर,रानू ,सौम्या कुलांटी मारे अऊं मरवाए बर माहिर रहींन।

सब्बो झन जेल में गुलाटी मारत हे। ए दरी कौनों ह मुंह अंधेरा में खारुन तरफ जात नई दिखे है। नदी के दुसर तरफ घलो पार हे, एकात गुलाटी भविष्य के सत्ता बर मार लेते, का हे के एक साल में पचपन ले छप्पन भर होय हे, बचपना के स्टंट ल एके साल में झन भुला कका,

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