Seemanchal Politics: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का माहौल है और हर पार्टी अपनी जीत का गणित फिट करने में लगी है. इसी बीच, सीमांचल की दो अहम सीटों, अमौर (Amour) और कस्बा (Kasba) पर जो कुछ हुआ है, उसने राजनीतिक गलियारों में सबको चौंका दिया है. दरअसल, यहां पुराने प्रत्याशियों को बदलकर नए चेहरों को मौका दिया गया, लेकिन इस बदलाव को जिसने सबसे ज्यादा मजेदार बना दिया, वह थी नामों की समानता और उसके पीछे की सियासी चाल.
हुआ यूं कि अमौर में जेडीयू ने अपने पुराने चेहरे सबा जफर की जगह साबिर अली को टिकट थमा दिया. वहीं, कस्बा में कांग्रेस ने भी इरफान आलम को हटाकर आफाक आलम को मैदान में उतार दिया.
अमौर में जेडीयू का ‘नाम’ प्रयोग
अमौर सीट पर पिछले चुनाव में AIMIM के अख्तरुल ईमान ने जीत दर्ज करके सबको हैरान कर दिया था. इस बार जेडीयू ने यहां बहुत सोच-समझकर दांव खेला. पार्टी को लगा कि सबा जफर भले ही लोकप्रिय हों, लेकिन कार्यकर्ताओं में कुछ असंतोष है.
जेडीयू के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि अमौर में लड़ाई केवल पार्टी के नाम की नहीं, बल्कि ‘पहचान’ की है. उन्हें ऐसा चेहरा चाहिए था जो मुस्लिम समाज में नई ऊर्जा भर सके. सबा और साबिर के नाम में भले ही कुछ अक्षरों का फर्क हो, लेकिन साबिर अली को लाना सीधे-सीधे ओवैसी की पार्टी (AIMIM) को टक्कर देने की बड़ी रणनीति थी.
हालांकि, इसमें एक और राजनीतिक मोड़ आया है. दरअसल, साबिर अली ने खुद अपनी उम्मीदवारी से इनकार कर दिया और सबा जफर के साथ ‘सुलह’ की बात कह दी. लेकिन इस सुलह से पहले, नाम को लेकर जो राजनीतिक कन्फ्यूजन फैलना था, वह फैल चुका था.
कस्बा में ‘इरफान’ गए, ‘आफाक’ आए
कस्बा सीट पर कांग्रेस का दांव भी कुछ ऐसा ही रहा. पहले इरफान आलम को टिकट मिला, फिर तुरंत उन्हें हटाकर आफाक आलम को टिकट दे दिया गया. सूत्रों के मुताबिक, कांग्रेस को जानकारी मिली कि इरफान आलम की स्थानीय नेताओं में पकड़ सीमित थी. वहीं, आफाक आलम को युवाओं और कारोबारी तबके में ज्यादा पसंद किया जाता है. पार्टी का मानना है कि यह बदलाव केवल नाम का नहीं, बल्कि वोट गणित का है. कांग्रेस सीमांचल में मुस्लिम वोटरों के साथ-साथ पिछड़े तबके को भी साधने की कोशिश में जुटी है और आफाक इस रणनीति में फिट बैठते हैं.
नामों की जुगलबंदी, सियासत की बड़ी कहानी
‘सबा-साबिर’ और ‘इरफान-आफाक’ की ये नाम वाली जोड़ी सिर्फ इत्तफाक नहीं है, यह बिहार की राजनीति की बारीक समझ को दिखाती है. दोनों ही सीटों पर हुए बदलाव यह साबित करते हैं कि अब पार्टियां केवल चेहरे के भरोसे नहीं, बल्कि समीकरणों को साधकर मैदान में उतर रही हैं.
राजनीतिक पंडित कहते हैं कि सीमांचल और कोसी बेल्ट में, जहां मुस्लिम वोट निर्णायक होते हैं, वहां उम्मीदवार का नाम, खानदान और जातीय-पेशा पहचान बहुत मायने रखती है. यह ‘नाम-गेम’ सिर्फ उम्मीदवार बदलने तक सीमित नहीं है, यह एक बड़ा संदेश है. जेडीयू जताना चाहती है कि वह सीमांचल में नई पीढ़ी के नेताओं पर भरोसा कर रही है. कांग्रेस दिखाना चाहती है कि उसका संगठन अभी भी जमीन पर सक्रिय है.
राजनीति की समझ रखने वाले कहते हैं, “नाम में क्या रखा है, ये तो शेक्सपियर ने कहा था. लेकिन बिहार चुनाव में तो वोट, समीकरण और जीत, सब कुछ नाम से ही शुरू होता है.” अमौर और कस्बा की यह कहानी इस चुनाव का वो आईना है, जहां नाम भले ही मिलते-जुलते हों, लेकिन उनके पीछे की सियासी चालें और मकसद बिल्कुल अलग हैं. और यही है बिहार की चुनावी राजनीति का असली ‘नामनामा’.
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